प्रसिद्ध कवि, अनुवादक और सृजनात्मक लेखक डॉ. नबनीता देव सेन ने हैदराबाद विश्वविद्यालय (UoH) में सुजीत मुखर्जी स्मारक व्याख्यान 2014 का उद्घाटन किया.
इस व्याखान में वक्ताओँ ने सुजीत मुखर्जी के बारे में बताया कि- वे बहुमुखी प्रज्ञाशाली और दूरदर्शी थे. वे एक सफल अनुवादक, प्रकाशक, सृजनात्मक लेखक थे. भारतीय साहित्य के साथ-साथ अपने देश और अपने देशवासियों के प्रति उनके दिलमें एक जुनून था. वे क्रिकेट प्रेमी भी थे. वे दिल और दिमाग़ से जो सोचते थे वही लिखते थे और वही करते थे.
सुजीत मुखर्जी के साहित्य सृजन को चिरस्मरणीय कर उनके सहित्यिक योगदान को सम्मानित करने के उद्देश्य से हैदराबाद विश्वविद्यालय तुलनात्मक साहित्य केंद्र ने सुजीत मुखर्जी स्मारक व्याख्यान माला आरंभ करने की पहल की. पहले स्मारक व्याख्यान सत्र को उनके अपने मित्रों, प्रकाशकों और सुजीत मुखर्जी के निजी जीवन से जुड़े गणमान्य व्यक्तियों के बीच आरंभ किया गया.
तुतुन मुखर्जी की अध्यक्षता में आयोजित इस सत्र में हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने एक पुस्तक का विमोचन किया. इस अवसर पर सुजीत मुखर्जी के साहित्य सृजन पर तथा उनके अनुवाद साहित्य पर चर्चा गोष्ठियों का आयोजन किया गया. जिसमें मिनी कृष्णन, दीपा चट्टोपाध्याय, रसना आत्रेय, प्रिया अदरकर, रोहिणी मुखर्जी, प्रो. टी. विजय कुमार, अपराजिता सिन्हा रॉय जैसे अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया.
इस अवसर पर डॉ. सेन बहुभाषावाद और अनुवाद नामक विषय पर व्याख्यान देते हुए सुजीत मुखर्जी के साथ बिताई अपने समय की यादों को ताज़ा करते हुए भारतीय साहित्य से संबंधित उनकी अवधारणाओं पर प्रकाश डाला. आगे उन्होंने कहा कि- सुजीत मुखर्जी ने हमेशा भाषाओं की सीमाओं को दूर कर अनुवाद तथा तुलनात्मक साहित्य की आवश्यकता पर ज़ोर दिया. आगे कहा कि- हमें भारतीय के रूप में अपने आप को उभारने के लिए और राष्ट्रीय एकता की भावना को बनाए रखने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है.
अपने व्याख्यान के दौरान डॉ. सेन ने कहा कि वे 1966 से पहले एक दूसरे को जानते नहीं थे. आगे उन्होंने बताया कि सुजीत मुखर्जी के साथ उनके विचार मिलने के कारण दोनों ने मिलकर बहुत कुछ कार्य किया. आगे उन्होंने भारतीयता और भारतीय साहित्य के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि – अनुवाद के कारण ही आज भारतीयता बनी हुई है वरना इतने विशाल देश की विभिन्न भाषाओं के बीच हम गुम हो गए होते. हमारे इतिहास को समझने में अनुवाद की भूमिका अद्वितीय है. यदि भारतीय भाषाओं का अनुवाद न हुआ होता तो भारतीय इतिहास अधूरा रह जाता.