हैदराबाद विश्वविद्यालय को कई ऐसे कुशल प्रशासक मिले हैं, जिन्होंने इसके विकास और वृद्धि को आकार दिया है। उनमें से एक, विश्वविद्यालय के तीसरे कुलपति प्रोफेसर भद्रिराजू कृष्णमूर्ति का इस संस्थान को किया गया योगदान सराहनीय है। शिक्षा, भाषा विज्ञान और सामाजिक जिम्मेदारी में उनके प्रतिदाय का प्रभाव नि:संदेह विश्वविद्यालय की परिधि को लाँघ जाता है।

19 जून 1928 को आंध्र प्रदेश के ओंगोल में जन्मे प्रो. कृष्णमूर्ति द्रविड़ भाषाओं के विशेषज्ञ और प्रसिद्ध भाषाविद् बन गए। उन्होंने प्रतिष्ठित द्रविड़ भाषाविद् प्रोफेसर एम.बी. एमेन्यू की देखरेख में काम करते हुए पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय (1957) से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। प्रोफेसर कृष्णमूर्ति की शैक्षणिक यात्रा उन्हें आंध्र विश्वविद्यालय, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले और उस्मानिया विश्वविद्यालय सहित कई संस्थानों में ले गई।

प्रो. कृष्णमूर्ति ने उस्मानिया विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान विभाग की स्थापना की, जहाँ वे 1962 से 1986 तक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रहे। 1962 में, 34 वर्ष की आयु में, वे किसी भारतीय विश्वविद्यालय में चेयर प्रोफेसर बनने वाले सबसे कम उम्र के भारतीय बन गए, जब वे उस्मानिया विश्वविद्यालय में टैगोर भाषा विज्ञान के प्रोफेसर बने। उनकी महान कृति, ‘द्रविड़ भाषाएँ’ को द्रविड़ भाषा विज्ञान के अध्ययन में एक ऐतिहासिक खंड माना जाता है। उन्होंने कई प्रशासनिक पदों पर भी कार्य किया, जिनमें अध्यक्ष, कला संकाय और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के दक्षिणी क्षेत्रीय केंद्र के निदेशक के पद शामिल हैं।

प्रो. कृष्णमूर्ति 1986 से 1993 तक हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने कई अभिनव पहलों को लागू किया, जिसने विश्वविद्यालय के शैक्षणिक परिदृश्य को बदल दिया। उन्होंने नए अंतःविषय कार्यक्रम शुरू किए, विभागों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया और नवाचार की संस्कृति को आगे बढ़ाया। 1987 में, उन्होंने मानविकी संकाय में सरोजिनी नायडू मंच कला, ललित कला और संचार संकाय के साथ ही अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान और अनुवाद अध्ययन केंद्र की स्थापना की।

उनके नेतृत्व में, विश्वविद्यालय के महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे का विकास हुआ, जिसमें नई इमारतों (जैसे समाज विज्ञान संकाय), प्रयोगशालाओं और अन्य सुविधाओं का निर्माण शामिल है। तत्कालीन आधुनिक बुनियादी ढाँचे की कुछ सुविधाएँ जिनका उन्होंने पुरज़ोर समर्थन किया, उनमें टेलीफोन कनेक्टिविटी के लिए EPABX, रामन सभागार, कई कार्य स्टेशनों के साथ कंप्यूटर सेंटर और विज्ञान परिसर में एक PARAM कंप्यूटर, और संस्थागत ईमेल (uohyd.ernet.in) और फैक्स मशीन शामिल हैं। गोल्डन थ्रेशोल्ड से मानविकी संकाय और समाज विज्ञान संकाय के स्थानांतरण के साथ, एस.एन. स्कूल के अलावा सभी संकायों ने गच्चीबावली परिसर से काम करना शुरू कर दिया।

उन्होंने स्थानीय संगठनों, उद्योगों और सरकारी एजेंसियों के साथ साझेदारी को बढ़ावा देते हुए कई आउटरीच कार्यक्रमों का शुभारंभ किया। उनके कार्यकाल के दौरान चार दीक्षांत समारोह (द्वितीय-पाँचवाँ दीक्षांत समारोह) आयोजित किए गए। चतुर्थ दीक्षांत समारोह (13 मार्च 1991) में सर एंड्रयू हक्सले (नोबेल पुरस्कार विजेता), न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्ला (भारत के उपराष्ट्रपति), प्रोफेसर सी.एन.आर. राव, प्रोफेसर सी.आर. राव और पंचम दीक्षांत समारोह (22 अप्रैल 1993) में डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (रक्षा मंत्रालय के वैज्ञानिक सलाहकार) और प्रोफेसर सर्वपल्ली गोपाल को मानद उपाधियाँ प्रदान की गईं। हैदराबाद विश्वविद्यालय के 15 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित इस यादगार विशेष समारोह में श्री. अर्जुन सिंह, मा.सं.वि.मं., प्रोफेसर यशपाल, वि.वि.अनु.आ. और संस्थापक कुलपति प्रोफेसर गुरुबख्श सिंह ने भाग लिया।

प्रो. कृष्णमूर्ति को भाषा विज्ञान और शिक्षा में उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्रदान किए गए। कुछ उल्लेखनीय पुरस्कारों में श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय और द्रविड़ विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट, रॉयल सोसाइटी ऑफ एडिनबरा के फेलो, लिंग्विस्टिक सोसाइटी ऑफ अमेरिका की मानद सदस्यता, गिड़ुगु राममूर्ति पुरस्कार, तेलुगु भारती पुरस्कार और अमेरिकन तेलुगु एसोसिएशन से लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार शामिल हैं।

प्रो. कृष्णमूर्ति कई विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग प्रोफेसर रहे, जिनमें मिशिगन विश्वविद्यालय, एन अर्बर, कॉर्नेल विश्वविद्यालय, इथाका, ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, टोक्यो विश्वविद्यालय, पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय, फिलाडेल्फिया, इलिनोइस विश्वविद्यालय, अर्बाना-शैंपेन और हवाई विश्वविद्यालय शामिल हैं।

प्रोफेसर भद्रिराजू कृष्णमूर्ति का 11 अगस्त 2012 को निधन हो गया। वे अपने पश्चात् अकादमिक उत्कृष्टता, नवाचार और सामाजिक जिम्मेदारी की विरासत छोड़ गए हैं। हैदराबाद विश्वविद्यालय और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में उनका योगदान विद्वानों और शिक्षकों की भावी पीढ़ियों को प्रेरित और प्रभावित करता रहेगा।