हिंदी जगत के जाने माने साहित्यकार व संपादक राजेंद्र यादव के जन्मदिन 28 अगस्त के अवसर पर हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में संगोष्ठी आयोजत हुई । संगोष्ठी का विषय ,”राजेंद्र यादव का साहित्य अवदान ” था ।

सभा की अध्यक्षता विभागाध्यक्ष सच्चिदान्द चतुर्वेदी ने की। राजेंद्र यादव से जुड़े खुद के अनुभवों का व्याख्यायन करते हुए उन्होंने बताया, “जब मैं पहले हंस पत्रिका से परिचित नहीं था तो प्रेमचंद ही मेरे लिए कथा साहित्य का रूप थे । लेकिन 15-17 वर्ष तक राजेंद्र के साहित्यिक कार्यों का अध्ययन करते करते राजेंद्र यादव मेरे लिए कथा साहित्य का दूसरा नाम बन गए।

हंस पत्रिका की बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि आखिर पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों का भविष्य क्या है। आज ये कहानियां छप गयी हैं लेकिन कल गुमनाम भी हो सकती हैं। ऐसी कहानियों की क्या जीवन आयु होती है। वो कैसी कहानियां हैं जिनमे समय की नब्ज़ को पकड़ने का हुनर होता है। समय की नब्ज़ को आज भी पकडे रखने में सक्षम ऐसी ही कुछ कहानियों से श्रोताओं को परिचित कराया प्रोफेसर सच्चिदानंद ने –
“हनीमून ” नामक लघुकथा शिक्षक और छात्रा के अनुवाद पर आधारित है। उनके अनुसार इस कहानी में दो प्रकार के विमर्श है – एक कहा विमर्श और दूसरा अनकहा विमर्श। इस अनकहे विमर्श से ही कहानी आज भी जीवित है ।

“दिवंगत” कहानी दलित को आरक्षण से मिली सुविधा के कारण उस की योग्यता पर हो रहे संदेह को दर्शाती है। आज के समय में तो आरक्षण को लेकर खूब वाद- विवाद है।इस कहानी से लोग आज भी जुड़ पा रहे हैं ।

“मोस्ट वेलकम सर ” कहानी की पृष्टभूमि देते हुए वे बताते हैं कि कैसे समज में स्त्रियों को सांस्कृतिक शब्दों में घोला जा रहा है। स्त्री के ही विषय में कथाकथित पवित्र स्त्री का ज़िक्र हुआ “लक्ष्मण रेखा” कहानी के रूप में ,इस कहानी के ज़रिये सीताहरण को नए नज़रिये से देखने का अवसर मिला ।ख़ासा तौर पर उन्होंने छात्रों को इस कहानी को पढ़ने की हिदायत दी।
अगली कहानी थी “आत्महत्या”,उनके विचार में है तो एक लघुकथा लेकिन अपने छोटे से दामन में पूरे उपन्यास का सन्देश समेट रखा है।विभागाध्यक्ष के सम्बोधन के बाद छात्रों ने भी विभिन्न विषयों पर अपने अपने विचार रखे ।

हिंदी विभाग में शोध कर रहे कुमार सौरभ पहले वक्ता थे ।सौरभ ने हंस पत्रिका में प्रकाशित होने वाले पत्रों व राजेंद्र यादव की संपादकीय लोकतांत्रिकता पर चर्चा की। हंस का संपादकीय पढ़ना कितना महत्तवपूर्ण था लोगो के लिए यह बताया । पत्रिकाओं मंा पाठकों के प्रतिक्रिया को छापने का मुख्य उद्देश्य पाठकों के साथ सम्बन्ध बनाए रखने का था। हंस प्रत्रिका प्रमुख रूप से असहमति के पत्रों को छापने के लिए मशहूर रही है। राजेंद्र यादव आलोचना के पत्रों को ख़ासा तौर पर हंस पत्रिका में जगह देते थे।

‘सारा आक़श ‘ कृति और फिल्म की तुलनात्मक समीक्षा हिंदी विभाग की शोधार्थी प्रियंका ने की । राजेंद्र यादव की यह रचना सत्य घटना से प्रेरित थी । राजेंद्र यादव के एक मित्र थे जिनकी शादी तो हुई लेकिन 9 वर्षों तक पति पत्नी में आपसी बोलचाल नहीं था।यह राजेंद्र के लिए कौतुक का विषय बन गया और उन्हें बहुत आकर्षित किया ।इसी से जन्मा उनका उपन्यास ‘ प्रेत बोलते है ’ ।लेकिन कुछ समय बाद फिर इसका संशोधन किया गया और उपन्यास ‘ सारा आकाश ‘ के नाम से फिर वापस आया। यही उपन्यास मृणल सेन द्वारा बड़े परदे पर बतौर सिनेमा उतारा गया। प्रियांका ने कथा से फिल्म के सफर में खो गयी बातों पर अपना पक्ष रखा।

तीसरे वक्ता दिनेश यादव ने राजेंद्र यादव के स्त्री विमर्श को उनके ही उपन्यास ‘आदमी की निगाह में औरत ‘ के द्वारा पेश किया। दिनेश ने बताया की सामाजिक धारा में औरत को केवल तीन नाम दिए गए है-पत्नी, रखैल और वैश्या । कैसे स्त्रियों को कभी मानवीय दर्जा नहीं मिलता या तो आदमी उसे देवी बनाएगा या दासी पर बराबर कभी नहीं रखेगा। समाज का दोगलापन देखो वेश्या के पास जाने वाले आदमी को समाज दंडित नहीं करता वहीँ दूसरी और वैश्या का दर्जा गिरा देता है । जिस्म व्यापार में बेचने वाले पे इल्ज़ाम है परन्तु खरीदने वाले पर कोई ऊँगली नहीं उठाता।

संगोष्ठी में हिंदी विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शशि मुदिराज भी मौजूद थी। राजेंद्र की प्रमुख कहानी “जहाँ लक्ष्मी क़ैद है ” से ही मिलते जुलते नाम के विषय पर अपने विचार सभी से साझा किये । विषय था – जहाँ राजेंद्र कैद है ।
उन्ही के शब्दों में,”राजेंद्र की यह शायद खुशफहमी ही थी कि वो लेखक को जगत संसार से अलग समझते थे। ”
अन्य वक्ताओं में जिनित सबा ने मुस्लिम जगत की बागी औरते और राजेंद्र यादव के संपादकिय पर अपने विचार प्रकट किये। भवन कौशिक ने समकालीन हिंदी कहानी का परिदृश्य और टूटना कहानी पर चर्चा की।वहीं राजेंद्र यादव का आलोचना पक्ष श्रवण कुमार ने रखा।

-Zeenat Shana , Department of Communication