हैदराबाद विश्वविद्यालय मानविकी संकाय के उर्दू विभाग ने 11 अगस्त, 2017 को मानविकी संकाय के सभागार में कनाडा के जावेद दानिश द्वारा कहानी कहने की एक पुरानी मनमोहक कला ‘दास्तान हिज़रतों की’ का आयोजन किया.

श्री. दानिश भारतीय मूल के व्यक्ति हैं, जो पिछले 30 वर्षों से टोरंटो, कनाडा में रह रहे हैं. आप ‘सिटी ऑफ जॉय’ के रूप में ख्यात कोलकाता शहर के हैं, पर आपके पूर्वजों का मूल निवास लखनऊ था. आप अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके हैं. अपनी पढ़ाई के बाद आप थोड़े समय के लिए ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली और कोलकाता से जुड़े रहे, बाद में आप कनाडा चले गए. प्रवास के बाद प्रवास, अंदरूनी और बाहरी, दोनों ने आपके जीवन को अलग-अलग अनुभव दिए. जिसे उन्होंने बाद में अपने नाटक संग्रह ‘हिजरत के तमाशे’ (प्रवासन की बाधाएँ) में बयान किया.

‘दास्तान हिज़रतों की’ यह एक कहानी कहने की पुरानी कला का एक संगम है और नाटक का एकालाप भी. यह पुरानी और नई कला का एक अच्छा मिश्रण है. इस अवसर पर उर्दू विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. ज़ाहिदुल हक ने यूओएच हेराल्ड के लिए जावेद दानिश का साक्षात्कार लिया.

प्रश्न 1: दास्तांगोई की शुरुआत कैसे हुई ?

उत्तर : दास्तांगोई फ़ारसी के दो शब्दों से बना हैं – दास्तान अर्थ है कहानी और गोई का अर्थ है बोलना या कहना. दास्तांगोई 16 वीं शताब्दी की उर्दू कहानी कहने की एक कला का रूप है. दास्तांगोई का पहला मुद्रित संस्करण 19 वीं शताब्दी में अमीर-ए-हमज़ा के साहसिक कारनामों पर 46 खंडों में रचित ‘दास्तान–ए-अमीर हमज़ा’ में मिलता है. यह कला भारतीय उपमहाद्वीप में 19वीं सदी में अपने शिखर पर थी और यह भी माना जाता है कि 1928 में मीर बाकर अली के निधन के साथ ही इसकी समाप्ति हो गई. उर्दू के समीक्षक श्री. शमसुर रहमान फ़ारूकी ने 21 वीं सदी में इसके पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. दास्तांगोई का मुख्य आकर्षण दास्तांगो की आवाज़ या कहानीकार की आवाज है, जो दास्तान या कहानी के पुनर्निर्माण में मुख्य भूमिका निभाती है.

प्रश्न 2: आपने इस कला को ही अपना माध्यम क्यों चुना?

उत्तर : वास्तव में मैं एक नाटककार हूँ और मेरे बारह पुस्तकें पुस्तकें छप चुकी हैं. मेरा मुख्य विषय प्रवास की समस्या और उसका सुख है. मैंने अपने दास्तानों में प्रवास के समकालीन मुद्दों को जोड़ने का प्रयास किया है. पारंपरिक रूप से दास्तान एक शुद्ध कल्पना है, पर मैंने इन दास्तानों में परंपरागत रूप और पोशाकों को अपनाया है, जबकि मेरी कहानियाँ पश्चिम में रहने वाले आप्रवासियों के वर्तमान मुद्दों को संजोने का कार्य करती हैं. इसके अलावा मैंने इतनी स्वतंत्रता ली है कि इन दास्तानों को सोलो ड्रामा में बदलने की कोशिश की है. क्षेत्रीय हितों के लिए मेरी कहानियाँ सिर्फ एक ही चरित्र का विवरण नहीं करतीं बल्कि एक साथ पाँच अलग-अलग पात्रों और भाषा शैलियों को प्रस्तुत करती हैं. यह एक दुखद कहानी है, जो दूसरे छोर पर आशा की किरण को सुनिश्चित करती है.

प्रश्न 3: कितने सालों से आप यह कार्य कर रहे हैं?

उत्तर : मेरी रंगमचीय पृष्ठभूमि लगभग तीस वर्षों की है, लेकिन दास्तांगोई मेरी नई प्रेरणा है, जिसे मैंने दो साल पहले शुरू किया था और आज मैं दुनिया भर में इसका प्रदर्शन कर रहा हूँ.

प्रश्न 4: इसके प्रति विश्व भर में दर्शकों की प्रतिक्रिया क्या है?

उत्तर : मेरा पहला प्रदर्शन कनाडा में था और फिर मध्य-पूर्व के प्रमुख शहरों में, वहाँ के दर्शक इससे अब तक जुड़े हैं, क्योंकि वे अपनी कहानियों को मेरी प्रस्तुतियों में देखते हैं. प्रस्तुति के दौरान हँसी, आँसू और उत्साह के साथ खड़े होकर अपनी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करते हैं.

प्रश्न 5: आपके अनुभव के अनुसार दास्तांगोई का भविष्य क्या होगा?

उत्तर : दास्तांगोई खोई हुई कला का एक रूप है, लेकिन वर्तमान समय में इसे सफलतापूर्वक पुनर्जीवित कर इसका प्रदर्शन सफलतापूर्वक किया जा रहा है. मुझे लगता है कि यह अपनी नई कहानियों और प्रयोगों के कारण समय की कसौटी पर खरी उतरेगी. थियेटर से जुड़ा व्यक्ति होने के कारण मुझे पूरा विश्वास है कि भ्रम के इस युग में थिएटर के अन्य रूपों में जैसे सोलो, स्ट्रीट थियेटर, लंबे नाटकों के साथ दास्तांगोई भी एक विकल्प के रूप में सामने आएगी.

प्रश्न 6: हैदराबाद शहर और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बारे में आपकी क्या राय है ?

उत्तर : मैंने हैदराबाद शहर का दौरा इससे पहले भी किया था. संस्कृति और साहित्य से जुड़ा यह शहर मुझे अपने पारंपरिक मूल्यों, व्यंजनों और सांस्कृतिक विरासत के कारण हमेशा प्रेरित करता रहा है. बहुभाषी छात्रों से भरे सभागार में हैदराबाद विश्वविद्यालय के मानविकी संकाय के उर्दू विभाग द्वारा आयोजित इस दास्तांगोई प्रदर्शन ने मेरा दिल जीत लिया. मुझे अपने इस प्रदर्शन के दौरान यह बात सबसे अच्छी लगी कि प्रदर्शन के बाद विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों और विषयों से संबंधित छात्रों ने दास्तांगोई के बारे में और मेरे प्रदर्शन के बारे में सवाल पूछे. मैं फिलहाल भारत के दौरे पर हूँ और कम से कम पंद्रह शहरों में मैंने अपने प्रदर्शन प्रस्तुत किए, लेकिन हैदराबाद मेरा सबसे अच्छा गंतव्य रहा.

मानविकी संकाय के संकायाध्यक्ष प्रोफेसर पंचानन मोहंती न केवल पूरे कार्यक्रम में बैठे रहे बल्कि दास्तांगोई का पूरा मज़ा भी लिया. इस अवसर पर उन्होंने छात्रों को एक अद्भुत सुझाव देते हुए कहा कि वर्तमान युग में यदि हम बहुभाषी होंगे तो ही सच्चे भारतीय बन सकते हैं.